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Sunday, October 16, 2011

मुझे लौटना है

मुझे लौटना है
बिल्कुल
तय है लौटना
लेकिन
तुम्हारे पास नहीं
हां, तुम्हारे पास भी नहीं
बिल्कुल नहीं क्योंकि तुम नाम हो
अब मुझे नहीं चाहिए कोई भी नाम
पहचान
जगह
संज्ञा
नहीं चाहिए सर्वनाम
कोई विशेषण
...
यहां तक लौटने की चाहत
खत्म हो रही है मेरी
या के घुटन होने लगी है यहां
या के अब और पाना चाहता हूं
है...! कोई है?
दे सकते हो तुम?
तुम...?
हां, बोलो तुम भी...?
कोई भी... जो सक्षम हो!
बोलो-बोलो-कोई तो हो
देह न अदेह
प्राण से परे
जीवात्मा न परमात्मा
सब भटक रहे हो-मुक्ति के लिए
तुम लोगों से-मुझे क्या मिलेगा बोलो
बोलो-मुझे क्या दोगे?
अब तक मेरी और तेरी चाहतों में
फर्क ही क्या रहा जो
सुकून की आस करुं तुझसे?
या के तुम मुझसे राहत पाओ!
छोड़ो भी सब, छोड़ो भी अब
तुम अपनी जानो-जाना है तो जाओ
वरना लौट जाओ
मुझे जाना है
लौटना है, लौटना है, लौटना है
बस! याद रखना मेरे पीछे आने से भी कुछ ना मिलेगा
आज तक अनुयायियों को संप्रदाय ही चलाने पड़े हैं
सब कुछ जानते अपने देवताओं के झूठ-सच
निभाने पड़े हैं-मंत्र
होमनी पड़ी है आस्थाएं
तुम ऐसा मत करना
मेरे कहे का संप्रदाय मत बनाना
मेरे से आस्था मत जोडऩा
जो खुद को ही नहीं ढूंढ़ पाया
बहुत पहले ही हो चुका है तुम्हारे सामने नंगा
सनद रहे-यह नग्नता साधना नहीं है
तुम भ्रम में मत पडऩा
मैं जानता हूं तुम भ्रम में नहीं, कौतुहल में हो
जानना चाहते हो
मैं
ऐसा हूं या वैसा
मिलेगा जवाब
मैं आऊंगा-बताने
इसीलिए लौटना है मुझे
मांगना है जवाब
दिग से, दिगंत से
मेरे होने के कारक बने उन सभी से
जो कर रहे हैं मेरा इंतजार
मैं जानता हूं
वे बेहद खुश होंगे
वे बुला रहे हैं
तुम इसे मेरी तरह लौटना ही कहना
वे भी इसे लौटना ही समझें तो बेहतर
सुना है
लौटने का कहकर निकले बहुतेरे
आज तक उन तक पहुंचे नहीं हैं
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है

- हरीश बी. शर्मा

Wednesday, May 18, 2011

कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह लगे सुहानी बरखा सी
सूखे मरु को है सरसाती
कभी संवेदन, कभी स्पंदन
कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वो प्रणय कवि की ज्यों पंक्ति
वह कशिश गजल का मतला ज्यूं
वह छुअन बहारों की समीरा
वह लाज उदित होते रवि की
वह छन-छन पायल की भाषा
वह हंसी कहीं बिजली चमकी
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह घनश्यामल बिखरी जुल्फें
वह दीपशिखा मद्धिम-मद्धिम
वह बंदनवार बहारों की
वह चरम बसंती पुरवाई
वह लय है गीतों की मेरे
वह वीणा मेरी वाणी की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह दिल में बसी प्यारी मूरत
वह जिसे सजाया ख्वाबों में
वह झील-सी गहराई जिसमें
हम डूबते ही हर बार चले
वह खिलता कमल, सिमटी दुल्हन
वह तुलसी मेरे अंगना की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

- हरीश बी. शर्मा

Thursday, April 28, 2011

तब तक



तूने जब सेंध लगाई
छैनी से भी पहले
आंगन में फैल गई
तेरी रोशनाई
रेत, किरचें और उधर से आती किरण
हां, सूरज तेरा-मेरा अलग नहीं था
किरचें और रेत थी मेरी
मेरी दीवार से
फिर जाने क्यों लगता रहा जैसे
सब कुछ था प्रेरित-अभिप्रेरित
उधर से, तेरी ओर से
छैनी करती रही सूराख
टकराया तेरा होना
तेरे होने का अहसास
अलग था कुछ-अब तक अनदेखा
वजूद जो चाहता था चुरा लेना
मैं निश्चित, आश्वस्त! 
क्या?
था क्या मेरे पास
चुराने लायक?
मैं भी समेट कर घुटने
टेक कर पीठ दीवार से
करने लगा इंतजार
चलती रही हथौड़ी
पिटती रही छैनी
बढऩे लगा आकार
सब कुछ दिखने लगा आरपार
मेरा बहुत कुछ जा चुका था उधर

- हरीश बी. शर्मा

Friday, April 1, 2011

रंगकर्म: बस यूं ही लिखने लगा नाटक

राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से नाट्य विधा के लिए दिए जाने वाले देवीलाल सामर पुरस्कार के लिए मुझे चुने जाने पर मेरे कुछ मित्रों ने मेरे नाटक और सृजन प्रक्रिया के संबंध में जानना चाहा है, उनके प्रश्नों से उपजी यह अनुभूति यहां शेयर कर रहा हूं। 
बीकानेर में उन दिनों नाटकों की जबर्दस्त मार्केटिंग होती थी। फिल्मों के पोस्टर की तरह पोस्टर लगते थे। बस, ये पोस्टर हाथ से बने होते थे। आकर्षण पैदा हुआ। नाटक में रोल पाना चाहता था लेकिन 'थैंक यू मिस्टर ग्लाडÓ में मधु आचार्य जी की धुआंधार रिहर्सल ने अंदर तक हिला रखा था। फिर भी स्कूल-कॉलेज तक छिटपुट नाटक करता रहा। स्वदेश दीपक के 'कोर्टमार्शलÓ के जरिये पहली बार स्टेज का स्पर्श किया। यह समय था जब जवाहर कला केंद्र ने संभागीय नाट्य प्रतियोगिता शुरू हुई। यह बात 1995 के आसपास की है। इस प्रतियोगिता के दौरान स्क्रिप्ट की समस्या एक मुद्दा बन गई। वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप भटनागर, जगदीशसिंह राठौड़, रामचंद्र शर्मा 'अनिशाÓ ने कहा कि तुम स्क्रिप्ट क्यों नहीं लिखते। इसी बीच आकाशवाणी के जोधपुर में होने वाले यूथ फेस्टीवल के लिए योगेश्वर नारायण शर्मा ने 'वाह रे देश के कर्णधारÓ स्क्रिप्ट हम से लिखवा ली। यहां हम से आशय मैं और डॉ.कुमार गणेश हैं। इसे हमने लिखा भी और अभिनय भी किया। हां, आकाशवाणी का यह कार्यक्रम ही ऐसा था कि नाटकों का मंचन हुआ और लाइव-प्रसारण भी।
इस के बाद तो जैसे सिलसिला शुरू हो ही गया। नाटक लिखे तो पुरस्कृत हुए। मंचन भी हुआ। इसी दौरान राजस्थान साहित्य अकादमी ने हिंदी नाट्य सृजन तीर्थ किया। यहां भी नाटक का चयन हुआ। मंचन होते रहे और इस तरह हम पूरी तरह से नाटक के हो गए। हमें रंग-लेखक बनाने में जवाहर कला केंद्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता का बहुत बड़ा योगदान रहा। आज इस बात का संतोष है कि 15 साल पहले जहां स्क्रिप्ट की कमी की बात होती थी, वह काफी हद तक कम हो गई है।
मेरा सौभाग्य है कि लक्ष्मीनारायण सोनी, सुरेश हिंदुस्तानी, सुधेश व्यास, दलीपसिंह भाटी, दिनेश प्रधान, विपिन पुरोहित, अभिषेक गोस्वामी, रामसहाय हर्ष, रामचंद्र शर्मा, सुकांत किराड़ू, मयंक सोनी, सुरेश पाईवाल, मनजीत मन्ना ने मेरे लिखे नाटकों का निर्देशन किया। इस तरह 'सलीबों पर लटके सुखÓ, 'पनडुब्बीÓ, 'भोज बावळौ मीरां बोलैÓ, 'देवताÓ, 'कठफोड़ाÓ, 'एक्सचेंजÓ, 'हरारतÓ, 'जगलरीÓ, 'एलओसी:लाइन ऑफ कंट्रोलÓ, 'प्रारंभकÓ, 'सराबÓ, 'गोपीचंद की नावÓ 'ऐसो चतुर सुजानÓ नाटकों का मंचन हुआ। 'हरारतÓ और 'पनडुब्बीÓ के दो मंचन हो चुके और 'सराबÓ को सिंधी में अनुदित करके मंचित किया गया।
इसके अतिरिक्त 'अथवा कथाÓ , 'आंगन भयो बिदेसÓ और हाल ही में लिखा गया नाटक 'ऑनर किलिंग:अस्मिता मेरी भीÓ मंच का परस पाना चाहते हैं। हां, मेरा यह साफ तौर पर मानना है कि मंच का परस मिले बगैर कोई भी आलेख नाटक नहीं हो सकता। मेरे लिए नाटककार होने की एकमात्र यही कसौटी है, यह पहली और आखिरी शर्त।
- हरीश बी. शर्मा

Monday, March 7, 2011

इक नई तुकबंदी! मुलाहिजा फरमाइये...

कितनी होशियारी
कि सबकुछ बचाकर भी
कह जाते हैं लोग
समझाते हैं-यही है दुनियादारी
काश! हमें भी आ जाए ये अय्यारी
कहे तो कहे दिल इसे मक्कारी

Sunday, January 23, 2011

उनके चितराम, मेरी भरी-भरी आंखें

Om Purohit Kagad
'आंख भर चितराम' यह नाम है राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार ओम पुरोहित 'कागद' के कविता संग्रह का। हालांकि कविता से होकर निकलना आसान नहीं है लेकिन अगर कवि 'कागद' हों तो यह हो सकता है। उनकी कविताएं बहुत ही जाने-पहचाने प्रतीक और बिंबों के साथ अपनी बात कहते हुए आगे बढ़ती है लेकिन अचानक ये सारे कुछ और जताने लगते हैं। ओमजी के हाथ में पहुंचने के बाद ये उनके इशारों पर चलने लगते हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी ने कालीबंगा सभ्यता के बारे में नहीं पढ़ा हो लेकिन इस संग्रह का एक अध्याय जो पूरी तरह से कालीबंगा पर आधारित है, से निकलने के बाद ही यह तय होता है कि हमने क्या, कितना और कैसे पढ़ा। कोफ्त होती है कि अगर वह इतना अधकचरा था तो क्यों और किसलिए पढ़ा।
इतने सारे विजुअल जो उन्होंने रचे हैं, एक बार पढऩे पर लगता है कि सारे समझ में आ गए हैं लेकिन अगले ही क्षण लगता है कि ओमजी जिस 'अड़वे' की बात कर रहे हैं वो खेत में खड़ा लकड़ी की पिंजर भर नहीं है। उनकी  'खेजड़ी' एक सांस्कृतिक आख्यान लगती है। उनके 'झूठ' सच का अभिप्राय है। 'कालीबंगा' के बहाने तो जैसे उन्होंने मानवीय सभ्यता के सारे मापदंड ही रख दिए हैं।
उनकी कालीबंगा एक ऐसी सृष्टि है, एक ऐसा पड़ाव है जिसे सभ्यता के तौर पर हम जानते-समझते आए हैं। सभ्यता के इस मर्म को ओमजी ने गहरे तक पकड़ा है और फिर आज की हमारी सभ्यता से जोड़कर जो उन्होंने व्यंजना की है, लाजवाब है। हमें 'हम' होने के लिए झकझोरती है। तर्क और संवेदना के साथ वे इतने कपाट खोल देते हैं कि सवाल नत-मस्तक हो जाते हैं।
ऐसे में यह तय है कि पढऩे भर से इन कविताओं तक पहुंचना संभव नहीं है। इसे जानने के लिए राजस्थान में उतरना होगी। धोरों पर दौडऩा होगा और मायड़ भाषा से दीक्षित होना होगा। इस सार्थक लेखन को कोटिश: नमन। मैं चाहता हूं बार-बार पढ़ूं इसे। देखता रहूं आंख भर चितराम। कभी तो समझ आएगा जो ओमजी कहना चाहते हैं।

- हरीश बी. शर्मा

Saturday, January 1, 2011

कुछ लोगों पर तो नींद में ही लागू हो गया नववर्ष

कुछ भी तो खास नहीं रहा। कोहरा उतरा और ना शीत लहर कम हुई। पतझड़ भी दूर खड़ा अपनी बारी का इंतजार करता रहा। उसे भी लगा कि इतना तो मैं भी बेशर्म नहीं किफसलें पके नहीं और मैं आ धमकूं। लेकिन नया साल आ ही गया। एकदम दबे पांव। कुछ लोगों पर तो नींद में ही लागू हो गया। ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेज आए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत। कितनी समानता है ना दोनों में। अब आए तो निभाएंगे। अतिथि देवो: परंपरा में अगाध श्रद्धा रखते हैं। तब भी किया था स्वागत, आज भी बंदनवार सजाएंगे। आओ नववर्ष, हमारे उत्कर्ष के कारण बनो...